हा ल में हुए विधानसभा चुनावों में उत्तर भारत में भाजपा की सुस्पष्ट जीत ने एक सवाल फिर खड़ा कर दिया है कि विपक्ष की रणनीति कौन-सी हो सकती है जब उसका मुकाबला अत्यधिक चतुर और लोकप्रिय प्रधानमंत्री से हो, जो लोगों से गहराई से जुड़ा हो, अभिप्रेरित हो, संसाधन सम्पन्न हो, सुनियोजित तरीके से राजनीतिक हो, जबकि साथ ही साथ आर्थिक नीतियों के खिलाफ असंतोष की भावना होने के बावजूद केंद्र सरकार के खिलाफ नाराजगी की कोई लहर भी नहीं हो।
विपक्ष के सामने चुनौती यह है कि वह सरकार की मुखर आलोचना नहीं कर पा रहा है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने हाल ही में कहा था द्ग हालांकि कांग्रेस का प्रचार दृढ़ और साहसिक था, पर पार्टी का लक्ष्य उन लोगों पर केंद्रित था जो पहले ही पार्टी को वोट देने का मन बना चुके थे। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के चुनाव विश्लेषण से भी पता चलता है, जिन राज्यों में कांग्रेस की हार हुई है, वहां कांग्रेस का वोट शेयर ज्यादातर स्थिर रहा है। विडम्बना तो यह है कि भाजपा-विरोधी वोटों को विपक्ष अपनी तरफ करने में उतना कामयाब नहीं रहा, जितना कि भाजपा, कांग्रेस-विरोधी वोटों को अपनी तरफ करने में बेहतर करती दिखी। छत्तीसगढ़ के परिणामों में साफ दिखा है कि वहां कांग्रेस का वोट शेयर मुश्किल से गिरा है, लेकिन भाजपा का वोट शेयर लगभग 12 प्रतिशत बढ़ गया है। कुल वोट शेयर में वफादारी का मुद्दा बहुत सारे पड़ाव लिए होता है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस, ज्यादा से ज्यादा दूसरे दलों से आए लोगों से बात कर रही है। ऐसा क्यों है?
मूल समस्या यह है कि कांग्रेस का बौद्धिक इको-सिस्टम आंतरिक रूप से उन वैचारिक बदलावों के विरुद्ध खड़ा हुआ दिखा है जिनकी उसे जरूरत है। भारतीय राजनीति में वामपंथ और मध्यमार्गी का अभिशाप इसका सुस्त सामाजिक नियतिवाद है: अब वर्षों से, यह सर्वहारा वर्ग के समकक्ष कुछ प्राकृतिक सामाजिक समूह की तलाश कर रहा है, जो सहज ही अपनी सामाजिक स्थिति के आधार पर मुक्ति के एजेंट के रूप में कार्य करता है। कभी ये लोग दलित होते हैं, कभी अल्पसंख्यक तो कभी सामान्यत: जाति समूह के होते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि राजनीति आज केवल सामाजिक पहचान के अंकगणित तक सिमट कर रह गई है।
जातिगत जनगणना इस गलती का नवीनतम अभिनय है। जातिगत जनगणना राजनीतिक रूप से अदूरदर्शी कदम है क्योंकि ऐसा कोई गंभीर विकासात्मक एजेंडा नहीं है जिसके लिए जातिगणना की जरूरत पड़ती हो। यह कदम नैतिक रूप से अपमानजनक है। यह मतदाताओं के हित में फैसले लेने के बजाए उनकी पहचान के रूप में मान्यता की स्क्रिप्ट है। भाजपा हिंदुत्व की पहचान की राजनीति में संलग्न है लेकिन वह कहीं ज्यादा अधिक सचेत है कि कोई भी पहचान राजनीतिक रूप से उत्पन्न होती है। वामपंथ का अस्मितावाद और भी ज्यादा गिरफ्त में लेने वाला और राजनीतिक-विरोधी लगता है।
नवीनतम अफवाह को लें: उत्तर और दक्षिण का भेद। उत्तर और दक्षिण में अंतर है, लेकिन कांग्रेस समर्थक अपने चारों ओर जो बौद्धिक ढांचा खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, वह अनुत्पादक है और नस्लवाद के नजदीक है। इस तथ्य को छिपाया जा रहा है कि दक्षिण में, यहां तक कि केरल में भी, सांप्रदायिकता उबाल पर है। सामाजिक संरचना के रूप में जाति, तमिलनाडु जैसे राज्यों में उतनी ही दमघोंटू और तकलीफदेह है जितनी अन्य राज्यों में। यह दावा भी अजीब तरह का है कि एक ही चुनाव कर्नाटक को बुराई से अच्छाई की ओर तथा छत्तीसगढ़ व राजस्थान को अच्छाई से बुराई की ओर बढ़ाने वाला हो सकता है। इस तरह के दावे दक्षिण में भाजपा की क्षमता को कम आंकने वाले हैं। ऐसी भावनाएं विभाजन की राजनीति को जन्म देती हैं और राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा की भव्यता को पूरी तरह से भाजपा के लिए छोड़ देती हैं।
भाजपा की राजनीतिक विलक्षणता होते हुए भी, अधिनायकवाद और सांप्रदायिकता के बढ़ते जोखिमों को नकारना नैतिक रूप से अनुचित होगा। हमें यह मानना ही पडे़गा कि ऐसे खतरों को व्यापक रूप से महसूस नहीं किया जा रहा है। यह राजनीतिक हकीकत है चाहे हम इसे तवज्जो दें या नहीं। देश की लगभग सभी महत्त्वपूर्ण संस्थाओं को अपमानित किया जा रहा है और हमारी स्वतंत्रता खतरे में है। लेकिन यह इस तरह से किया जा रहा है कि अधिकांश नागरिकों को शासन के अपने सामान्य अनुभव में अंतर का अनुभव न हो। कुछ लोगों की गिरफ्तारियों को इस नजरिए से देखा जा रहा है कि यह सब तय प्रक्रिया के अनुरूप ही हो रहा है। राजनीतिक क्षेत्र की प्रतिस्पर्धात्मकता कई लोगों को यह आश्वासन देती है कि कोई व्यवस्थित खतरा नहीं है। दुर्भाग्य से यह ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसको लेकर विपक्ष ध्यान आकर्षित करने या आश्वस्त करने में सक्षम हो।
हिन्दुत्व के मसले पर विपक्ष की आलोचना दो कारणों से अप्रभावी है। इसमें संदेह न के बराबर है कि भाजपा ने हिंदुओं के बीच एक ऐसा समूह तैयार किया है जो मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और राजनीतिक तौर पर उनके हाशिए पर जाने को लेकर भी सहज है। अधिनायकवाद की तरह, कई लोगों ने खुद को आश्वस्त किया है कि कोई व्यापक हिंसा नहीं हुई है जो किसी के विवेक पर दबाव डालती हो, या अव्यवस्था की आशंका पैदा करती हो। ऐसा खतरा भी काफी दूर का लगता है। लेकिन विपक्ष हिन्दुत्व को लेकर बहस में पड़ता ही रहता है। विपक्ष की मुख्य चिंता संस्कृति पर आपसी लड़ाई को लेकर नहीं है। कांग्रेस का पारिस्थितिकी तंत्र आपस की लड़ाई को जीतने की खातिर अच्छी स्थिति में नहीं है। कांग्रेस को हिन्दू-विरोधी होने का आरोप हमेशा ही झेलना पड़ता है और हर सांस्कृतिक लड़ाई पार्टी को इस जाल में फंसा देती है। इस संकट से बाहर निकलने का एकमात्र तरीका हर व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करना है, जो बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक ढांचे से ऊपर उठाने वाली होती है। कांग्रेस को स्वतंत्र अभिव्यक्ति, दंगों, राजनीतिक हत्याओं और सभी समुदायों में सामुदायिक शक्ति पर मुखर होना होगा।
कांग्रेस ने भ्रष्टाचार की आलोचना को प्रमुखता दी है। यहां दो समस्याएं हैं। यह कभी कारगर हो सकती है जबकि कोई विश्वसनीय वाहक हो जैसे कि जेपी या अपने शुरुआती दिनों वाली आम आदमी पार्टी। दूसरी कारगर चीज है आलोचना का स्तर: उदाहरण के लिए, भ्रष्ट विधायकों को लेकर बहुत असंतोष था या परीक्षा भर्ती के बारे में चिंताएं थीं। लेकिन अडानी की एक अमूर्त आलोचना (राजस्थान जैसे राज्य में जहां 5,000 करोड़ रुपए का अडानी निवेश प्राप्त हो रहा है) मुद्दे से परे थी। दूसरी चिंता अर्थव्यवस्था को लेकर है। यह एक जटिल मुद्दा है। राज्य को कल्याणकारी गठबंधनों को साथ लेना होता है और अक्सर प्रतिस्पर्धा योग्यता से अधिक होती है। पर इससे भी अहम बात यह है कि विपक्ष को तेजी से वामपंथ की तरफ झुकते देखा जा रहा है। बड़े घरानों का विरोधी और घरानों का विरोधी होने के बीच की लाइन को समझाना कठिन है। ऐसे में, चाहे वह अकेले कांग्रेस हो या ‘इंडिया’ गठबंधन, सबसे अधिक संघर्ष भाजपा की आलोचना के लिए ऐसी भाषा और ऐसे मुद्दे खोजने को लेकर है, जो सटीक हों। इसमें आश्चर्य नहीं कि फिलहाल वे उनसे बात कर रहे हैं जिनका मत तय हो चुका है।